राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका

0

नई दिल्ली, 4 जून (आईएएनएस)। सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (सी) की वैधता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई, जिसमें कहा गया है कि यह कानून स्पष्ट रूप से मनमाना और तर्कहीन है।

याचिकाकर्ता देवकीनंदन ठाकुर ने अधिवक्ता आशुतोष दुबे के माध्यम से दायर याचिका में केंद्र से अल्पसंख्यक को परिभाषित करने और जिला स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए एक दिशानिर्देश निर्धारित करने के लिए निर्देश देने की भी मांग की है।

याचिकाकर्ता का कहना है कि अनुच्छेद 29-30 के तहत उनका अधिकार राज्य में बहुसंख्यक समुदाय के रूप में अवैध रूप से छीना जा रहा है, क्योंकि केंद्र ने उन्हें एनसीएम अधिनियम के तहत अल्पसंख्यक अधिसूचित नहीं किया है।

याचिका में आगे कहा गया है, लद्दाख में हिंदू महज एक प्रतिशत हैं, वहीं मिजोरम में 2.75 प्रतिशत, लक्षद्वीप में 2.77 फीसदी, कश्मीर में 4 फीसदी, नागालैंड में 8.74 फीसदी, मेघालय में 11.52 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश में 29 फीसदी, पंजाब में 38.49 फीसदी, मणिपुर में 41.29 फीसदी हिंदू हैं, लेकिन केंद्र ने उन्हें अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया है। हिंदुओं को अनुच्छेद 29-30 के तहत संरक्षित नहीं किया गया है। इसलिए हिंदू अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और अन्य कार्य नहीं कर पा रहे हैं।

इसमें कहा गया है कि यहूदी, बहावाद और हिंदू धर्म के अनुयायियों को उनकी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के उनके मूल अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।

इसमें आगे कहा गया है कि अधिनियम एस 2 (सी) के तहत बेलगाम शक्ति का उपयोग करते हुए केंद्र ने मनमाने ढंग से पांच समुदायों – मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया है।

पीआईएल के अनुसार, ऐसी कार्रवाई का परिणाम अभी भी देखा जा रहा है, क्योंकि यहूदी, बहावाद और हिंदू धर्म के अनुयायी, जो लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, मणिपुर में वास्तविक अल्पसंख्यक हैं, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन नहीं कर सकते हैं। जनहित याचिका में दावा किया गया है कि राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक की पहचान न होना, इस प्रकार अनुच्छेद 29-30 के तहत गारंटीकृत उनके मूल अधिकारों को खतरे में डालता है।

इसमें मुस्लिमों की आबादी की ओर इशारा करते हुए कहा गया है कि दूसरी ओर, लक्षद्वीप (96.58 प्रतिशत) और कश्मीर (96 प्रतिशत) में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं और लद्दाख (44 प्रतिशत), असम (34.20 प्रतिशत), बंगाल (27.5 प्रतिशत), केरल (26.60 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (19.30 प्रतिशत) और बिहार (18 प्रतिशत) में मुस्लिमों की महत्वपूर्ण आबादी है, जो कि अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और इनका प्रशासन कर सकते हैं। इसी प्रकार से नागालैंड (88.10 प्रतिशत), मिजोरम (87.16 प्रतिशत) और मेघालय (74.59 प्रतिशत) में ईसाई बहुसंख्यक हैं और अरुणाचल, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी इनकी ठीक-ठाक आबादी है, जो कि अल्पसंख्यकों के मिलने वाले अधिकारों का पूरी तरह से फायदा उठा रहे हैं।

इसी तरह, पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं और दिल्ली, चंडीगढ़, हरियाणा में भी इनकी बड़ी आबादी है, और वे संस्थानों को स्थापित और इन्हें प्रशासित कर सकते हैं।

जनहित याचिका में कहा गया है कि इसी तरह, लद्दाख में बौद्ध बहुसंख्यक हैं, लेकिन वे अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन की जिम्मेदारी आराम से संभाल सकते हैं।

–आईएएनएस

एकेके/एसजीके

Leave A Reply

Your email address will not be published.