Indian Rail in Uttarakhand : उत्तराखंड में आज के दिन पहली बार पहुंची थी रेलगाड़ी
उत्तराखंड के इतिहास में आज यानी 24 अप्रैल की तारीख बेहद खास है। 139 साल पहले ठीक आज के ही दिन 24 अप्रैल 1884 को उत्तराखंड में पहली बार सवारी ट्रेन पहुंची थी।
उत्तराखंड में पहली सवारी ट्रेन काठगोदाम पहुंची थी। लखनऊ से काठगोदाम पहुंची उस ट्रेन का नाम अवध-तिरहुत मेल था। उत्तराखंड में पहली बार ट्रेन पहुंचने की कहानी बेहद दिलचस्प है।
पहली बार जब ट्रेन काठगोदाम पहुंची तो स्थानीय लोग इसे ब्रिटिश सरकार का कोई अजूबा समझ कर डर गए थे। कई दिनों लोगों के मन में ट्रेन को लेकर डर बना रहा। जब भी ट्रेन काठगोदाम पहुंचती तो लोग दूर भाग जाते। धीरे-धीरे लोगों को ट्रेन की उपयोगिता समझ आई और उनका डर खत्म हुआ।
आइएउत्तराखंड में पहली ट्रेनपहुंचने से लेकर अब तक की यात्रा के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानते हैं।
उत्तराखंड के कुमाऊं में ब्रिटिश हुकूमत की शुरुआत सन 1815 में हुई थी। उससे पहले कुमाऊं में गोरखा शासन था। सन 1790 में कुमाऊं पर कब्जा करने के बाद गोरखाओं ने ढाई दशक तक राज किया। 1815 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को पराजित किया जिसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से कुमाऊं में ब्रिटिश राज की स्थापना हुई।
अंग्रेजों ने कुमाऊं में सत्ता संभालने के साथ ही यहां की बहुमूल्य वन संपदा का अकूत दोहन शुरू कर दिया। तब बंबई, कलकत्ता समेत कई बड़े शहरों तक रेलगाड़ी की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन उत्तर भारत के अधितकर इलाके अभी भी रेल सुविधा से अछूते थे।
रेल न होने के चलते अंग्रेजों को उत्तर भारत में व्यापार करने में असुविधा होती थी। इसका समाधान करने के लिए उन्होंने रेल नेटवर्क बढ़ाने पर जोर दिया और इस तरह काठगोदाम तक रेल की पटरी बिछाने का फैसला लिया गया।
ट्रेन पहुंचाने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1970 के दशक में बरेली से काठगोदाम तक पटरियां बिछाने का काम शुरू किया। बरेली से काठगोदाम तक रेलवे लाइन बिछाने वाली कंपनी का नाम था ‘रूहेलखंड-कुमाऊं रेलवे कंपनी।’ बरेली तक ट्रेन 1 मई 1969 को पहुंच गई थी।
वर्षों तक कड़ी मेहनत के बाद आखिरकार पटरियां बिछाने और स्टेशन बनाने का काम पूरा हुआ जिसके बाद 24 अप्रैल 1884 के दिन पहली ट्रेन काठगोदाम पहुंची। काठगोदाम तक ट्रेन पहुंचाने के बाद अंग्रेजों के लिए लकड़ियों एवं अन्य माल की ढुलाई करने में आसानी हो गई। उन्होंने ट्रेन के जरिए भारी मात्रा में टिंबर समेत तमाम प्रजाति की लकड़ियां देश के कोने-कोने तक पहुंचाई।
काठगोदाम तक रेल पहुंचाने के बाद अंग्रेजों ने कुमाऊं और गढवाल के दूसरे हिस्सों को भी रेल नेटवर्क से जोड़ने का फैसला किया। इसके तहत काठगोदाम रेल सेवा शुरू होने के दो साल बार 1 जनवरी 1986 को लक्सर जंक्शन को हरिद्वार रेलवे स्टेशन से जोड़ा गया। इसके 14 साल बाद सन 1900 में हरिद्वार से देहरादून तक रेल पहुंचाई गई।
सन 1905 में अंग्रेजों ने टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन के साथ ही चौखुटिया, जौलजीबी रेल लाइन का सर्वेक्षण करवाया। सन 1939 में सर्वेक्षण का काम पूरा हुआ जिसके बाद इन दोनों नए रेलमार्गों के बनने की उम्मीद जगी। लेकिन इसबीच द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया जिसके चलते ब्रिटिश हुकूमत का पूरा ध्यान युद्ध पर केंद्रित हो गया और यो दोनों प्रोजेक्ट स्थगित कर दिए गए। आजादी के बाद एक बार फिर नए सिरे से इन दो मार्गों के निर्माण की मांग उठी, लेकिन ये मांग पूरी नहीं हो सकी।
इस बीच 15 मार्च 1912 को टनकपुर भी रेलवे सेवा से जुड़ गया। पांच साल बाद सन 1920 में आगरा से लालकुंआ तक कुमाऊं एक्सप्रेस नाम की ट्रेन का संचालन शुरू हुआ। इस सबके बीच एक और अहम जानकारी यह है कि उस साल यानी सन 1920 में कुमाऊं के लालकुंआं से चोरगलिया तक 21 किलोमीटर और हुराई-संहपुर से जौलासाल तक करीब 20 किलोमीटर ट्रैक पर रेलगाड़ी चलाई जाती थी। इन गाड़ियों का एकमात्र उद्देश्य था तराई-भाबर से बेशकीमती लकड़ी का ढुलान।
जंगलों से लकड़ी के भारी गिल्टे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए जंगलात विभाग ने 1920 में नन्धौर ट्राम व ट्रेन का संचालन किया। चोरगलिया क्षेत्र में लाखनमंडी के पास एक डिपो था, जहां से लकड़ियां ट्रेन में लोड की जाती थीं। करीब 34 साल तक चलने के बाद सन 1954 में इन दोनों गाड़ियों का संचालन बंद कर दिया गया। इसी तरह टनकपुर में भी जंगलों तक ट्राम वे लाइनें बिछाकर ट्रेने चलाई गयी। मई 1994 में काठगोदाम से रामपुर तक बड़ी रेल सेवा शुरू हो पाई।
उत्तराखंड में रेलवे की यात्रा के अहम पड़ावों में वर्ष 2003 भी शामिल है। उस साल देहरादून रेलवे स्टेशन को ISO का दर्जा दिया गया। यह दर्जा पाने वाला देहरादून राज्य का पहला रेलवे स्टेशन है।
रेलवे की इस यात्रा में एक अहम पड़ाव के रूप में मई 2016 भी शामिल है। उस साल 13 मई को करीब सवा सौ वर्षों से चल रही नैनीताल एक्सप्रेस ने अपना आखिरी सफर एशबाग स्टेशन से शुरू किया जो अगले दिन 14 मई को टनकपुर स्टेशन पहुंच कर हमेशा के लिए खत्म हो गया।
2010-11 का साल उत्तराखंड में रेलवे की यात्रा के लिहाज से एक और बड़ी उपलब्धि का वर्ष रहा। उस वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार ने बहुप्रतीक्षित ऋषिकेश – कर्णप्रयाग रेलवे लाइन के लिए 4295.3 करोड़ रूपये की धनराशि मंजूर की।
लगभग 125 किलोमीटर लबीं इस रेलवे लाइन के लिए उत्तर रेलवे द्वारा सन 1996 से 2000 के बीच सर्वेक्षण का काम कराया गया था। इससे पहले सन 1927 में इस मार्ग पर छोटी लाइन बिछाने ने लिए पहली बार सर्वे किया गया था।
वर्ष 2019 में इस परियोजना का निर्माण कार्य शुरू हुआ जो वर्तमान में युद्धस्तर पर चल रहा है। 16,216 करोड़ रुपये लागत वाली यह परियोजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्रीम प्रोजेक्ट में से एक है।
125 किलोमीटर लंबी इस परियोजना में 105 किलोमीटर रेललाइन सुरंगों के भीतर होगी। इस रेललाइन के लिये कुल 17 सुरंगों का निर्माण हो रहा है। वर्ष 2025 तक इस परियोजना का निर्माण कार्य पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।
काठगोदाम से 33 साल पहले भी उत्तराखंड में चल चुकी थी रेल
उत्तराखंड में रेल की यात्रा यूं तो काठगोदाम से शुरू हुई, लेकिन इससे पहले भी यहां 33 साल पहले रेलगाड़ी चल चुकी थी। वह रेलगाड़ी भारत में चलने वाली पहली रेलगाड़ी थी। लेकिन उस गाड़ी का उद्देश्य सार्वजनिक परिवहन नहीं, बल्कि कुछ और था। आइए, उस गाड़ी की कहानी जानते हैं।
भारत में पहली बार सार्वजनिक परिवहन के लिए रेल सेवा की शुरुआत करीब 170 साल पहले 16 अप्रैल 1853 को हुई थी। तब महाराष्ट्र में मुंबई से ठाणे के बीच पहली रेलगाड़ी चली थी। लेकिन उससे दो साल पहले भारत में पहली बार रेल चल चुकी थी, लेकिन उसका उद्देश्य सार्वजनिक परिवहन नहीं बल्कि मिट्ठी की ढुलाई था।
दिलचस्प यह है कि पहली बार चली उस ट्रेन का कनेक्शन भी उत्तराखंड से ही है। वह ट्रेन चलाई गई थी, रुड़की से पिरान कलियर के बीच। तारीख थी, 22 दिसंबर 1851।
उस दिन पहली बार पांच किलोमीटर लंबे उस ट्रैक पर भाप के इंजन वाली ट्रेन दौड़ी था। उस इंजन का नाम तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जेम्स थॉमसन के नाम पर रखा गया था जिसे बाद में बदलकर मशहूर गायिका जेनी के नाम पर कर दिया गया।
22 दिसंबर 1851 को रुड़की से पिरान कलियर तक चली उस ट्रेन में केवल दो डिब्बे थे और उसरी रफ्तार थी 4 मील प्रति घंटा। उस ट्रेन से रुड़की में गंग नहर निर्माण के दौरान निकलने वाली मिट्टी की ढुलाई की गई थी। 9 महीने तक दो डिब्बों वाली उस ट्रेन से मिट्टी की ढुलाई की गई जिसके बाद उसका संचालन बंद कर दिया गया।
उस ऐतिहासिक ट्रेन का इंजन आज भी रुड़की स्टेशन में रखा हुआ है।
उत्तराखंड में कहां तक फैला है रेल नेटवर्क ?
उत्तराखंड के 13 में से 6 जिलों नैनाताल, उधमसिंह नगर, चंपावत, हरिद्वार,देहरादून और पौड़ी में रेलवे ट्रैक है। उत्तराखंड में सर्वाधिक रेलवे ट्रैक वाला जिला हरिद्वार तथा सबसे कम ट्रैक वाला जिला पौड़ी। रेलवे को दो मंडलों कुमाऊं और गढ़वाल में बांटा गया है। कुमाऊं मंडल का नेटवर्क पूर्वोत्तर रेलवे के इज्जतनगर मंडल (बरेली) के अधीन आता है। गढ़वाल मंडल का नेटवर्क उत्तर रेलवे के मुरादाबाद मंडल के अंतर्गत आता है।