Kedar Valley की सांस्कृतिक पहचान है पांडव नृत्य
आपने रामलीला या कृष्णलीला तो सुनी होगी, लेकिन क्या कभी आपने पांडव लीला के बारे में सुना है? दरअसल उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों खासकर केदारघाटी में पांडव लीला का आयोजन किया जाता है। उत्तराखंड से पांडवों का गहरा रिश्ता रहा है, अपने वनवास के दौरान पांडवों को उत्तराखंड के जौनसार इलाके के राजा विराट ने शरण दी थी, वहीं जब पांडव अपने जीवन के अंतिम दौर में स्वर्ग की ओर गए तो वो भी उत्तराखंड के केदार घाटी से होते हुए ही स्वर्ग गए, यही कारण है कि यहां उनकी पूजा की जाती है और उन्हें याद किया जाता है उनकी लीलाओं के मंचन के जरिये।
मान्यता है कि एकादशी के भगवान विष्णु ने पांच माह की निंद्रा से जागकर तुलसी से साथ विवाह हुआ था। यह दिन देव निशान को गंगा स्नान व पांडव नृत्य के लिए शुभ माना गया है, जो सदियों से चला आ रहा है। तब से अभी तक ग्रामीण देव निशानों को गंगा स्नान के लिए अवश्य लाते हैं। बताया जाता है कि यदि इस दिन देव निशानों को गंगा स्नान के लिए नहीं लाया गया तो गांव में कुछ न कुछ अनहोनी अवश्य होती है। इसलिए ग्रामीण इस दिन को कभी नहीं भूलते हैं।
अपने आप में पांडव लीला कई हिस्सों में बंटी होती है जिनमें प्रमुख चक्रब्यूह, कमलब्यूह और गरुड़ब्यूह हैं, कहा जाता है कि ये सब वो ब्यूह रचनाएं हैं जो पांडवों ने यहां के लोगों को बताई थी, मुख्य रूप से ये आयोजन अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के किनारे बसे गांवों में होते हैं क्योंकि पांडव इसी रास्ते से स्वर्ग को गए थे। इन सब लीलाओं में उत्तराखंड के औजियों का मुख्य स्थान होता है जिनके गायन और वाद्य के साथ पांडव मनुष्य शरीर में आकर नृत्य करते हैं, जिन लोगों के शरीर में पांडव आते हैं उन्हें पश्वा कहते हैं।
स्वर्ग जाने से पहले पांडवों ने अपने हथियार भी केदारघाटी के लोगों को दे दिये थे, जो आज भी यहां के मंदिरों में पूजे जाते हैं, ये भी कहा जाता है कि यहां के अधिकतर बड़े मंदिरों जैसे केदारनाथ, बद्रीनाथ और दूसरे मंदिरों का भी सबसे पहले निर्माण पांडवों ने ही करवाया था। इन लीलाओं का आयोजन मुख्य रूप से जनवरी और फरवरी के महीनों में किया जाता है।
सदियों से होता आ रहा पांडव नृत्य का आयोजन
पुजारी गिरीश डिमरी (पांडव नृत्य समिति ग्राम पंचायत दरमोला) का कहना है कि केदारघाटी के ग्राम पंचायत दरमोला में पांडव नृत्य का आयोजन सदियों से होता आ रहा है। यह एक ऐसा गांव है, जहां प्रतिवर्ष देव निशानों के गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य की परंपरा है। ऐसे पौराणिक संस्कृति को बचाना हम सभी का धर्म होना चाहिए, जिससे भावी पीढ़ी भी रूबरू हो रही है।