पहले समय में दुल्हन इस पौधे के पत्तियों से रचा करती थी मेहंदी: डॉ सोनी।

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सत्यों सकलाना/ विरेद्र वर्मा । पहले गांव का जीवन भी अजीब सा होता था जहां संसाधन न होने पर भी लोग सकून से रहते थे आपसी मेल मिलाप से जीते थे उन्हें किसी भी बात की फिक्र नही होती थी कोई जरूरत पड़े तो वैकल्पिक वस्तु को खोज लेते थे बात हो रही हैं मेहंदी के पौधे की। पर्यावरणविद् वृक्षमित्र डॉ त्रिलोक चंद्र सोनी कहते हैं हमारे पूर्वज भी बहुत शौकिया मिजाज के होते थे और शादी, कौथिक या पारिवारिक कार्यो पर महिलाएं सवरती थी तथा अपने हाथों में मेहंदी लगाते थे उस समय बाजार में मेहंदी आती नही होगी उन्होंने इसके एवज में मेंहदी का पौधा ढूढ़ निकाला। डॉ सोनी कहते हैं खुद मैंने यह मेहंदी लगाई हैं इस पौधें के पत्तियां निकालते थे और शीलपट्टे में बारीक पीसते थे उसे गाडा रंग के लिए चाय पत्ती या दाड़िम (अनार) के छिलके पीसकर मिला देते थे रात को अपने हाथों में लगा लेते थे सुबह हाथों में मेहंदी का रंग देता था उस समय युवक युवतियां, महिलाएं और दूल्हा दुल्हन अपने हाथों में इसी पौधे के पत्तो की मेहंदी लगाया करते थे इसके लिए इनके पत्तियों को सुखाकर पॉवडर बनाकर रखते थे उस समय भी मेहंदी की रस्म निभाई जाती होगी इसीलिए तो इस पौधे की खोज हुई। कैसा होगा वह जमाना जहां उन्होंने अपना जीवन निभाया। इस पौधे को अलग अलग नामो से जाना जाता हैं कहीं इसे मंजीरा के नाम से जाना जाता हैं। संगीता कठैत कहती हैं इस मेहंदी के पौधे से हमारी बचपन की यादें जुड़ी हैं छोटे में हमने इसको खूब हाथों में लगाया हैं वहीं यशुबाला उनियाल ने बिलुप्त होते पौधे की संरक्षण की बात कही। मेहंदी पौधों के साथ दीपिली ठाकुर, नीलम, सीमा असवाल, अनिता उनियाल, शोभा नेगी, रीना बर्तवाल, वीरसिंह राणा, गजेंद्र बेंजुला, दिनेश हटवाल आदि उपस्थित थे।

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